Review: इन दिनों, रवीना टंडन अपनी अभिनय यात्रा में दूसरी पारी खेल रही हैं। सिनेमा की पिच पर अपनी पहली पारी खेलने उतरी थीं, जब वे सिर्फ “टिप टिप बरसा पानी” और “तू चीज बड़ी है मस्त मस्त” जैसे गानों में ठुमके लगाने के लिए फिल्मों में लिया जाता था। तब भी, रवीना ने ‘दमन’ और ‘शूल’ जैसी फिल्मों में दिखाया कि वह अभिनय भी कर सकती है। ‘दमन’ के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी जीता था।
रवीना ने तीन साल पहले ओटीटी पर अपनी दूसरी पारी खेलनी शुरू की है। सिर्फ इन तीन साल में, रवीना ने दिखाया है कि सही भूमिका मिलने पर वह आज भी अपने समय की उन सभी अभिनेत्रियों से इक्कीस है जो वर्तमान में ओटीटी पर अपनी दूसरी पारी खेल रही हैं।
Review: सिर्फ एक बंदी काफी है
यदि फिल्म पटना शुक्ला एक सराहनीय सामाजिक फिल्म बन पाती है, तो इसकी कहानी, पृष्ठभूमि और मुख्य कलाकार रवीना टंडन का अभिनय सबसे महत्वपूर्ण हैं। ये फिल्म हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म “भक्षक” से कुछ मेल खाती है। ये दूसरा दौर भी खान सितारों का है।
‘लापता लेडीज’ आमिर खान की फिल्म है। शाहरुख खान ने अपने आप को एक “भक्षक” बनाया। साथ ही, सलमान खान ने अपनी भांजी को लेकर “फर्रे” बनाया, लेकिन आमिर और शाहरुख के सामाजिक सिनेमा को बढ़ा दिया। सलमान के भाई अरबाज खान की हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म पटना शुक्ला में फिल्म के मुख्य कलाकार के किरदार की लोकप्रियता ने इसका नाम दिया है। इस किरदार का नाम तन्वी शुक्ला है।
Review: घर की मुर्गी की दाल समान नहीं होती
तन्वी शुक्ला को लोग कैसे “पटना शुक्ला” कहने लगते हैं? तन्वी शुक्ला की कहानी अपने आप में प्रेरक है, हालांकि फिल्म ने इस नाटकीय बदलाव को प्रभावी ढंग से नहीं दिखाया है। वह वकील है। उसके पास अदालत परिसर में अपना बस्ता है। फिल्म दिखाती है कि तन्वी के सामने आने वाले मामले छोटे हैं, क्योंकि वह दर्जी को जांघिये के लिए मिले कपड़े से आधा मीटर कपड़े बेईमानी कर लेती है।
उसे अदालत का जज और खुद उसका पति भी छोटा सा वकील मानते हैं। वह भी अपने सहकर्मियों और उनकी पत्नियों के सामने कहता है, “ये (हलफनामा) एफिडेविट अच्छा बना लेती हैं।”बाद में, घर की मुर्गी दाल बराबर मानसिकता का ये पति भी बदलता है और अपनी पत्नी की लड़ाई में उसका साथ देने का फैसला करता है।
Review: मां, बेटी, पत्नी और वकील…
फिल्म “पटना शुक्ला” विहार विश्वविद्यालय में होने वाली अनियमितताओं को उजागर करती है। शुरू में लगता है कि ये उत्तर पुस्तिकाएं बदलने का मामला है, लेकिन फिर पता चलता है कि सीसीटीवी लगे स्ट्रॉन्ग रूम के ‘ब्लाइन्ड स्पॉट’ पर बैठा व्यक्ति लोगों की मार्कशीट ही बदलता है। मामला खुला है। पर अदालत सबूत चाहती है। तन्वी एक रिक्शावाले की बेटी है, जिसका मुकदमा वह लड़ रही है। वह अपने आप से वादा करती है कि दबाव पड़ने पर वह गिरेगी नहीं। तन्वी शुक्ला एक ऐसी महिला है जो खुद को स्थिर रखती है।
वह भी अच्छी खाना बनाती है। उन्होंने भी अपने लड्डुओं की प्रशंसा की। वह स्कूल बस का पीछा करके बेटे का टिफिन भी देती है अगर उसका टिफिन छूट जाता है। लेकिन उसकी वकालत अभी भी जारी है। और जब परीक्षा में उसका सर्वश्रेष्ठ नंबर आता है, तो एक खुलासा होता है। इस बात की पुष्टि के बाद, फिल्म बनाने वाले भी इस फिल्म का सीक्वल बनाने की संभावना छोड़ देते हैं।
कुछ भूल गया, कुछ याद आया।
निर्देशक विवेक बुड़ाकोटी की फिल्म पटना शुक्ला देखते समय आपको कई पुरानी और नवीनतम रिलीजों की याद आती रह सकती है। “जॉली एलएलबी” के न्यायाधीश सौरभ शुक्ला आपको याद आ सकते हैं। ‘फर्रे’ की कुछ घटनाएं आपको याद आ सकती हैं, और और भी दृश्य याद आ सकते हैं। लेकिन, ये फिल्म देखते समय मुझे मनोज बाजपेयी और रवीना टंडन की फिल्म “शूल” बार-बार याद आती रही। उस फिल्म में सबने मनोज का किरदार याद रखा, लेकिन रवीना का किरदार भूल गया। लेकिन इस बार रवीना ने मनोज की फिल्म “सिर्फ एक बंदा काफी है” की तरह ही फिल्म बनाई है। रवीना की ये फिल्म दोनों को याद दिलाती है।
बिहार तन्वी की बेटी है। वह एक राज्य में वकालत करने निकली है, जहां सिस्टम खराब हो गया है। विवेक बुड़ाकोटी ने इस किरदार को परदे पर इस तरह प्रस्तुत किया है कि मध्यमवर्गीय परिवार की बेटियां अपनी रीढ़, जो शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, को सीधा रखना सीख सकें। तन्वी दबाव में झुकती नहीं है। कद्दावर नेता को वह नहीं मानती।
रवीना टंडन पूरी तरह से रमी अदाकारी में
तन्वी शुक्ला का ये किरदार रवीना टंडन की अभिनय यात्रा में एक ऐसा हिस्सा है जो लोगों को लंबे समय तक याद रहेगा। इस किरदार को निभाते समय रवीना ने जिस तरह की दैहिक भाषा अपनाई है, वह बेहद प्रशंसनीय है। वह साड़ी में सुंदर दिखती है। इस किरदार को उनकी शिष्टता और सौम्यता बनाती है।
रवीना के बोलने, चलने और चेहरे पर दृढ़ता रखने का अंदाज काबिले तारीफ है। वह बेटे को टिफिन देने के लिए मां की तरह दिखने में कोई कसर नहीं छोड़ती। पति के साथ होने पर उनके चेहरे की चमक आकर्षक है। रवीना अपने अभिनय को सब्जी मंडी या अपने ही घर में जज साहब की लाचारी देखकर संतुलित रखती है। और, जब बात अदालत में जिरह की आती है, वह अपना काम बिना किसी नाटकीयता के करती हैं।
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Review: रवीना टंडन ने अदाकारी की एक और लंबी लकीर खींची: एक बंदी ही नहीं, एक बंदी भी पर्याप्त है