Burkha or Ghunghat Pratha: परंपरा बनाम आधुनिकता बुर्का और घूंघट पर सवाल
Burkha or Ghunghat Pratha: बुर्का और घूंघट प्रथा अब जरूरी या समय से बाहर? भारतीय संस्कृति, परंपरा और महिला स्वतंत्रता पर बहस। बुर्का और घूंघट क्या भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं या समय के साथ बदली जाने वाली सामाजिक परंपराएं? महिला सम्मान, आस्था और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नजरिए से जानिए इस बहस के दोनों पक्ष।
भारत विविधताओं का देश है, जहां अलग-अलग धर्म, संस्कृति और परंपराएं सदियों से साथ-साथ चलती आई हैं। इन्हीं परंपराओं में बुर्का और घूंघट जैसी प्रथाएं भी शामिल हैं। लेकिन बदलते समय, बढ़ती शिक्षा और महिला अधिकारों की बढ़ती चर्चा के बीच एक सवाल बार-बार उठ रहा है—क्या बुर्का और घूंघट जैसी प्रथाएं अब भी जरूरी हैं, या फिर इन्हें समय के साथ बदल देना चाहिए?


आस्था, संस्कृति या सामाजिक दबाव?
एक पक्ष मानता है कि घूंघट और बुर्का धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं। समर्थकों का कहना है कि यह महिलाओं की आस्था और व्यक्तिगत पसंद से जुड़ा मामला है। कई महिलाएं इसे सम्मान, सुरक्षा और अपनी पहचान का प्रतीक मानती हैं। उनका तर्क है कि जब किसी महिला पर इसे पहनने का दबाव नहीं है, तो समाज को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए। उनके अनुसार, संस्कृति का अर्थ ही विविधता है, और हर किसी को अपनी परंपरा निभाने की आज़ादी होनी चाहिए।
वहीं दूसरा पक्ष इसे महिला स्वतंत्रता से जोड़कर देखता है। आलोचकों का कहना है कि घूंघट और बुर्का जैसी प्रथाएं ऐतिहासिक रूप से पितृसत्तात्मक सोच से जुड़ी रही हैं, जहां महिलाओं को पर्दे में रहने की अपेक्षा की जाती थी। उनका तर्क है कि आज के दौर में जब महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, तब ऐसी प्रथाएं उनके आत्मविश्वास, समानता और स्वतंत्रता में बाधा बन सकती हैं। कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि अक्सर “परंपरा” के नाम पर महिलाओं पर अनकहा दबाव डाला जाता है।
महिला की पसंद या समाज की अपेक्षा—कौन तय करेगा?
इस बहस में सबसे अहम सवाल यही है—फैसला कौन करे? महिला स्वयं या समाज? विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी प्रथा को पूरी तरह गलत या सही ठहराने से पहले यह देखना जरूरी है कि वह स्वैच्छिक है या थोपे गई है। यदि कोई महिला अपनी मर्जी से बुर्का या घूंघट अपनाती है, तो वह उसका अधिकार है। लेकिन अगर सामाजिक दबाव, डर या मजबूरी इसके पीछे है, तो यह चिंता का विषय है। महिलायें जबरदस्ती ये प्रथाए अपनाएं हुए है या फिर ये सही नहीं है।


लेकिन नितीश कुमार ने जो हरकत की है वो भी गलत है, मुस्लिम महिलाओं की धार्मिक भावनाओं और ठेस पहोंची है इस पर काफ़ी अच्छी डिबेट के लायक है। पहेले भी एसी राजनीती लोंगो ने छिछोरी हरकते करी है, “अशोक गहलोत ने महिला का घुंघट अपने हाथो से हटाया था” और अब “नितीश कुमार ने महिला का हिजाब हटाया”। यह मुद्दा कानून या महिला अधिकार से ज़्यादा राजनीतिक नजरिए का बन गया है। जब की ये मुद्दा महिला सम्मान का होना चाहिए। किसी का घूंघट और हिजाब उठाना अपराध के लायक है। चाहे वो कोई भी गेर मर्द हो।


बदलते भारत में परंपराओं की नई परिभाषा
भारतीय संस्कृति स्थिर नहीं, बल्कि समय के साथ विकसित होती रही है। सती प्रथा, बाल विवाह जैसी कई परंपराएं कभी संस्कृति का हिस्सा मानी जाती थीं, लेकिन बाद में समाज ने उन्हें त्याग दिया। ऐसे में बुर्का और घूंघट पर भी खुली, संवेदनशील और सम्मानजनक चर्चा जरूरी है। निष्कर्ष यही निकलता है कि यह मुद्दा “हां या ना” में तय नहीं किया जा सकता। असली सवाल महिलाओं की पसंद, सम्मान और स्वतंत्रता का है। परंपरा तभी तक सार्थक है, जब तक वह व्यक्ति की आज़ादी को सीमित न करे।
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